दुर्गा सप्तशती का शक्तिशाली उच्चाटन मंत्र: संपूर्ण विधि, अर्थ और सावधानियां

दुर्गा सप्तशती उच्चाटन मंत्र




दुर्गा सप्तशती उच्चाटन मंत्र: शक्ति, साधना और परम सावधानियाँ

प्रस्तावना: आदिशक्ति की परम गाथा

"या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥"

जब हम हिन्दू धर्म के विशाल और रहस्यमयी आध्यात्मिक सागर में गोता लगाते हैं, तो कुछ ग्रंथ प्रकाश स्तंभ की तरह हमारा मार्गदर्शन करते हैं। "श्री दुर्गा सप्तशती" या "चंडी पाठ" ऐसा ही एक ग्रंथ है। यह केवल एक पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि यह मंत्रों का एक जीवंत संग्रह है, जिसमें ब्रह्मांड की आदिशक्ति, माँ दुर्गा की महिमा का गुणगान है। 700 श्लोकों में समाहित यह ग्रंथ साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने की क्षमता रखता है।

दुर्गा सप्तशती में वर्णित मंत्रों की शक्ति अकल्पनीय है। ये मंत्र केवल शब्द नहीं, बल्कि ध्वनि और ऊर्जा के वो स्पंदन हैं जो ब्रह्मांडीय चेतना से सीधा संबंध स्थापित करते हैं। इन्हीं शक्तियों में से एक अत्यंत गोपनीय और शक्तिशाली शाखा है "षट्कर्म"। षट्कर्मों में शांति, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण क्रियाएं आती हैं। आज हम इनमें से एक, "उच्चाटन" पर विस्तार से चर्चा करेंगे, विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती के संदर्भ में।

यह विषय अत्यंत गंभीर है और इसे केवल जानकारी या जिज्ञासा के लिए नहीं, बल्कि गहरे सम्मान और जिम्मेदारी के साथ समझना चाहिए। उच्चाटन का अर्थ, इसका उद्देश्य, दुर्गा सप्तशती में इसका स्रोत और इसकी साधना विधि क्या है? और सबसे महत्वपूर्ण, इसमें क्या सावधानियां बरतनी चाहिए? आइए, इन सभी पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डालें।


अध्याय 1: षट्कर्म क्या हैं और 'उच्चाटन' का वास्तविक अर्थ

तंत्र और मंत्र विज्ञान में षट्कर्म (छः क्रियाएं) का विशेष स्थान है। ये छः क्रियाएं ऊर्जा को एक विशेष दिशा में निर्देशित करने की विधियां हैं।

  1. शांति कर्म: रोगों, ग्रहों के दुष्प्रभावों और भय को शांत करने के लिए।

  2. वशीकरण: किसी व्यक्ति या परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाने के लिए।

  3. स्तंभन: किसी व्यक्ति, वस्तु या ऊर्जा के प्रवाह को रोक देने के लिए।

  4. विद्वेषण: दो लोगों के बीच मतभेद या शत्रुता पैदा करने के लिए।

  5. उच्चाटन: किसी व्यक्ति, वस्तु, विचार या समस्या को अपने जीवन या स्थान से स्थायी रूप से हटा देने या दूर भगा देने के लिए।

  6. मारण: किसी प्राणी के प्राण हरने के लिए (यह सबसे निंदनीय और तामसिक प्रयोग है)।

उच्चाटन को समझना:

'उच्चाटन' शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'उखाड़ फेंकना' या 'मन को अस्थिर कर देना'। जब इस मंत्र का प्रयोग किसी व्यक्ति पर किया जाता है, तो उसका मन उस स्थान या कार्य से उचाट हो जाता है, वह बेचैन और अस्थिर हो जाता है और अंततः उस जगह को छोड़कर चला जाता है।

परंतु, उच्चाटन का अर्थ केवल किसी व्यक्ति को भगाना नहीं है। इसका एक सात्विक और आध्यात्मिक पक्ष भी है, जो अधिक महत्वपूर्ण है:

  • सात्विक उच्चाटन: इसका प्रयोग अपने जीवन से नकारात्मकता, भय, रोग, बुरी आदतें, दरिद्रता, और बाधाओं को हटाने के लिए किया जाता है। यह अपने मन से काम, क्रोध, लोभ जैसे शत्रुओं का उच्चाटन करना भी है। यदि कोई शत्रु अनावश्यक रूप से परेशान कर रहा है, तो उसे बिना कोई हानि पहुँचाए, अपने जीवन से दूर करने का संकल्प भी सात्विक उच्चाटन है।

  • तामसिक उच्चाटन: जब इस शक्ति का प्रयोग किसी निर्दोष व्यक्ति को उसके स्थान से हटाने, उसके मन में भ्रम पैदा करने, या किसी स्वार्थ के लिए उसे परेशान करने के लिए किया जाता है, तो यह तामसिक प्रयोग कहलाता है। इसके परिणाम अत्यंत भयंकर होते हैं और साधक को इसका कर्मफल भोगना पड़ता है।

हमारा यह लेख केवल सात्विक उच्चाटन पर केंद्रित है, जिसका उद्देश्य आत्म-रक्षा, बाधा-निवारण और आध्यात्मिक उन्नति है।


अध्याय 2: दुर्गा सप्तशती - शक्ति साधना का सर्वोच्च ग्रंथ

दुर्गा सप्तशती, जो मार्कंडेय पुराण का अंश है, में 13 अध्याय और 700 श्लोक हैं। यह देवी महात्म्य के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी कथा राजा सुरथ और समाधि वैश्य से शुरू होती है, जो मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचते हैं और अपने दुखों का कारण पूछते हैं। ऋषि उन्हें देवी महामाया की कथा सुनाते हैं, जिसमें माँ दुर्गा के विभिन्न अवतारों द्वारा महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, चंड-मुंड जैसे भयानक राक्षसों के संहार का वर्णन है।

यह ग्रंथ तीन चरित्रों में विभाजित है:

  • प्रथम चरित्र (अध्याय 1): माँ महाकाली का वर्णन।

  • मध्यम चरित्र (अध्याय 2-4): माँ महालक्ष्मी का वर्णन (महिषासुर वध)।

  • उत्तम चरित्र (अध्याय 5-13): माँ महासरस्वती का वर्णन (शुम्भ-निशुम्भ वध)।

हर श्लोक एक सिद्ध मंत्र है। सही विधि, भाव और संकल्प के साथ पाठ करने पर ये मंत्र साधक के चारों ओर एक अभेद्य सुरक्षा कवच बना देते हैं और उसकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। दुर्गा सप्तशती के कई श्लोकों को विभिन्न षट्कर्मों के लिए बीज मंत्र के रूप में उपयोग किया जाता है।


अध्याय 3: दुर्गा सप्तशती का प्रसिद्ध उच्चाटन मंत्र

यद्यपि संपूर्ण दुर्गा सप्तशती ही शक्ति का स्रोत है, तथापि तंत्र के ज्ञाताओं ने विशिष्ट कार्यों के लिए कुछ विशेष श्लोकों को चिह्नित किया है। उच्चाटन के लिए जिस मंत्र का सबसे अधिक उल्लेख मिलता है, वह आठवें अध्याय का नौवां श्लोक है।

मूल मंत्र (संस्कृत):

"दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः,
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या,
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥"

(अध्याय 8, श्लोक 9)

मंत्र का शब्दशः अर्थ और भाव:

  • दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः: हे माँ दुर्गे! स्मरण करने मात्र से आप समस्त प्राणियों के भय को हर लेती हैं।

    • भाव: यहाँ "भय" का अर्थ केवल डर नहीं है, बल्कि जीवन में आने वाली हर नकारात्मक स्थिति, हर शत्रु, हर बाधा का डर है। जब आप माँ का स्मरण करते हैं, तो वह इस भय के मूल कारण का ही "उच्चाटन" कर देती हैं, उसे जड़ से उखाड़ फेंकती हैं।

  • स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि: और जब स्वस्थ (सुखी) व्यक्ति आपका स्मरण करते हैं, तो आप उन्हें और भी अधिक कल्याणकारी, शुभ बुद्धि प्रदान करती हैं।

    • भाव: यह पंक्ति दर्शाती है कि माँ केवल दुख में ही नहीं, सुख में भी सहायक हैं। सुख में उनका स्मरण करने से विवेक और ज्ञान की वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति सही निर्णय ले पाता है।

  • दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या: गरीबी, दुःख और भय को हरने वाली, आपके सिवा और कौन है?

    • भाव: यह माँ की करुणा और शक्ति की पराकाष्ठा है। साधक यह स्वीकार करता है कि जीवन के तीन सबसे बड़े कष्ट - दरिद्रता (अभाव), दुःख (मानसिक पीड़ा) और भय (असुरक्षा) - को हरने की क्षमता केवल और केवल माँ में है।

  • सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता: जिसका चित्त (हृदय) सदा ही सबका उपकार करने के लिए दयालु रहता है।

    • भाव: माँ का स्वभाव ही करुणा और उपकार है। वह किसी का अहित नहीं चाहतीं। इसीलिए इस मंत्र का प्रयोग सात्विक भाव से ही करना चाहिए, क्योंकि आप एक ऐसी शक्ति का आह्वान कर रहे हैं जिसका मूल स्वभाव ही "सबका उपकार" करना है।

यह मंत्र उच्चाटन के लिए क्यों?

इस मंत्र में "भय हरण" और "दुःख हरण" की जो प्रबल भावना है, वही इसे उच्चाटन का अचूक मंत्र बनाती है। जब आप किसी शत्रु, बाधा या नकारात्मक ऊर्जा से भयभीत होते हैं, तो यह मंत्र उस भय के स्रोत को ही आपके जीवन से दूर कर देता है, उसका उच्चाटन कर देता है। यह किसी को हानि नहीं पहुंचाता, बल्कि उस नकारात्मकता को आपके प्रभाव क्षेत्र से बाहर फेंक देता है।


अध्याय 4: मंत्र साधना की विस्तृत विधि और नियम

इस मंत्र की साधना अत्यंत सावधानी और पवित्रता की मांग करती है। बिना गुरु की आज्ञा और मार्गदर्शन के इस तरह के प्रयोगों से बचना चाहिए। यहाँ एक सामान्य और सात्विक विधि दी जा रही है, जिसे योग्य गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए।

पूर्व-तैयारी:

  1. गुरु की अनुमति: सबसे पहला और अनिवार्य नियम। गुरु आपके लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं और साधना में होने वाली त्रुटियों से आपकी रक्षा करते हैं।

  2. उचित समय: नवरात्रि, गुप्त नवरात्रि, ग्रहण काल, अष्टमी, चतुर्दशी या किसी भी मंगलवार/शनिवार से यह साधना प्रारंभ की जा सकती है। रात्रि का समय (10 बजे के बाद) विशेष फलदायी होता है।

  3. स्थान का चयन: एक शांत, स्वच्छ और एकांत कमरा चुनें। साधना काल में वहां किसी और का प्रवेश वर्जित हो।

  4. दिशा: आपका मुख उत्तर या पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए।

  5. आसन: कुश या ऊन का लाल या काले रंग का आसन प्रयोग करें।

  6. वस्त्र: लाल या काले रंग के स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

  7. सामग्री: माँ दुर्गा की तस्वीर या यंत्र, एक चौकी, लाल वस्त्र, घी या तिल के तेल का दीपक, धूप, गूगल-लोबान की धूनी, लाल फूल, फल, नैवेद्य, और एक रुद्राक्ष या काले हकीक की माला।

साधना विधि (चरण-दर-चरण):

  1. पवित्रीकरण: गंगाजल से स्वयं पर और पूजा स्थान पर छिड़काव करके शुद्धि करें। "ॐ अपवित्रः पवित्रो वा" मंत्र का जाप करें।

  2. संकल्प: हाथ में जल, अक्षत और पुष्प लेकर अपना नाम, गोत्र, स्थान बोलकर अपना उद्देश्य स्पष्ट रूप से बोलें। संकल्प सात्विक होना चाहिए। उदाहरण: "हे माँ दुर्गा, मैं (अपना नाम), (अपना गोत्र), अपने जीवन से समस्त बाधाओं, शत्रुओं द्वारा उत्पन्न कष्टों और नकारात्मक ऊर्जाओं के उच्चाटन हेतु इस मंत्र का (निश्चित संख्या) जाप करने का संकल्प लेता हूँ। हे माँ, मेरी रक्षा करें और मेरा मनोरथ सिद्ध करें।" जल को भूमि पर छोड़ दें।

  3. गणेश पूजन: सबसे पहले भगवान गणेश का संक्षिप्त पूजन करें और साधना की निर्विघ्न समाप्ति के लिए प्रार्थना करें।

  4. कलश स्थापना (वैकल्पिक): यदि संभव हो तो कलश स्थापना करें।

  5. देवी पूजन: चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर माँ दुर्गा का चित्र या यंत्र स्थापित करें। उनका पंचोपचार (धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, गंध) पूजन करें। उन्हें लाल फूल विशेष प्रिय हैं।

  6. ध्यान: माँ के प्रचंड स्वरूप का ध्यान करें, जिसमें वह सिंह पर सवार हैं और उनके हाथों में अस्त्र-शस्त्र हैं। मन में यह भाव लाएं कि वह आपकी रक्षा के लिए उपस्थित हैं।

  7. मंत्र जाप: अब अपनी माला से संकल्पित संख्या में ऊपर दिए गए मंत्र का जाप शुरू करें। उच्चारण बिल्कुल स्पष्ट और सही होना चाहिए। मंत्र जाप करते समय ध्यान भटकना नहीं चाहिए। मन को मंत्र के अर्थ और माँ के स्वरूप में केंद्रित रखें। सामान्यतः कम से-कम 11 माला (11x108) जाप का विधान है, जिसे 21 या 41 दिनों तक किया जाता है।

  8. हवन (यदि संभव हो): अनुष्ठान के अंत में मंत्र के दशांश (जाप की संख्या का दसवां हिस्सा) का हवन करना सर्वोत्तम माना जाता है। हवन सामग्री में काले तिल, पीली सरसों, गूगल और घी का प्रयोग विशेष फलदायी होता है। यह अत्यंत शक्तिशाली प्रक्रिया है और इसे किसी योग्य पंडित या गुरु की देखरेख में ही करना चाहिए।

  9. क्षमा प्रार्थना और समर्पण: जाप के बाद माँ से साधना में हुई किसी भी ज्ञात-अज्ञात भूल के लिए क्षमा मांगें और फल को उन्हीं के चरणों में समर्पित कर दें।


अध्याय 5: परम सावधानियाँ और वर्जनाएं - जिन्हें कभी न भूलें

यह साधना दोधारी तलवार की तरह है। यदि नियमों का पालन न किया जाए तो यह साधक को ही हानि पहुंचा सकती है।

  1. गुरु का मार्गदर्शन सर्वोपरि है: इस बात पर जितना जोर दिया जाए, कम है। बिना गुरु के ऐसी साधनाएं कभी न करें।

  2. संकल्प की शुद्धता: आपका इरादा पूरी तरह सात्विक होना चाहिए। किसी निर्दोष को सताने, किसी का घर उजाड़ने या किसी को परेशान करने के भाव से किया गया जाप आपका ही विनाश करेगा। कर्म का सिद्धांत अकाट्य है।

  3. ब्रह्मचर्य का पालन: साधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है, मानसिक और शारीरिक दोनों स्तरों पर।

  4. सात्विक आहार: इस दौरान मांस, मदिरा, लहसुन, प्याज जैसे तामसिक भोजन का पूरी तरह त्याग करें। शुद्ध और सात्विक भोजन ही ग्रहण करें।

  5. भूमि शयन: यदि संभव हो तो साधना काल में भूमि पर सोएं।

  6. क्रोध और असत्य से बचें: अपनी वाणी और मन पर नियंत्रण रखें। किसी से झूठ न बोलें, क्रोध न करें और वाद-विवाद से दूर रहें।

  7. गोपनीयता: अपनी साधना के बारे में किसी को न बताएं। इसका ढिंढोरा पीटने से इसकी ऊर्जा क्षीण हो जाती है।

  8. अखंडता: एक बार साधना शुरू करने के बाद उसे बीच में न छोड़ें। यदि किसी कारणवश एक दिन छूट जाए तो गुरु से परामर्श लेकर प्रायश्चित करें।

  9. भयभीत न हों: साधना के दौरान कई बार साधक को कुछ विचित्र अनुभव (आवाजें सुनाई देना, परछाई दिखना) हो सकते हैं। यह ऊर्जा के रूपांतरण का संकेत हो सकता है। ऐसे में डरें नहीं, अपने गुरु का स्मरण करें और माँ पर विश्वास बनाए रखें।


निष्कर्ष: शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग

दुर्गा सप्तशती का उच्चाटन मंत्र वास्तव में एक सुरक्षा कवच है। यह हमें उन सभी नकारात्मक शक्तियों से बचाता है जो हमारी प्रगति में बाधक हैं - चाहे वे बाहरी शत्रु हों या हमारे भीतर के मानसिक विकार। इसका उद्देश्य विनाश नहीं, बल्कि रक्षा और परिशोधन है।

जैसे एक डॉक्टर सर्जरी के लिए चाकू का उपयोग शरीर से रोग को हटाने के लिए करता है, न कि अंग को नष्ट करने के लिए, उसी प्रकार इस मंत्र का प्रयोग जीवन से बाधा, शत्रु या नकारात्मकता को हटाने के लिए होना चाहिए, न कि किसी को हानि पहुंचाने के लिए।

माँ दुर्गा 'सदार्द्रचित्ता' हैं, यानी उनका हृदय सदा करुणा से भरा है। जब आप शुद्ध हृदय से, कल्याण की भावना से उनकी शरण में जाते हैं, तो वह आपकी हर विपत्ति को हर लेती हैं। लेकिन यदि कोई उनके नाम पर उनकी शक्ति का दुरुपयोग करने का प्रयास करता है, तो उसका परिणाम भी उसे स्वयं ही भुगतना पड़ता है।

अतः, इस दिव्य ज्ञान का सम्मान करें। इसे समझें, आत्मसात करें और यदि आवश्यकता हो तो किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में अपने जीवन की बाधाओं को दूर करने और एक निर्भय, सुखी और आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए इसका सात्विक प्रयोग करें।

॥ जय माता दी ॥

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