छठ महापर्व: आस्था, प्रकृति और सूर्य उपासना का अनुपम संगम | chhath puja par nibandh
प्रस्तावना: एक परिचय
भारत, त्योहारों का देश है, जहाँ हर पर्व की अपनी एक अनूठी पहचान, परंपरा और आस्था है। इन्हीं पर्वों के बीच एक ऐसा महापर्व है जो अपनी सादगी, पवित्रता और प्रकृति से सीधे जुड़ाव के लिए जाना जाता है - छठ पूजा। यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि एक कठोर तपस्या और आध्यात्मिक अनुष्ठान है, जो मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। छठ पूजा सूर्य देव और उनकी बहन छठी मैया को समर्पित है, जिसमें व्रती (व्रत रखने वाले) संतान की प्राप्ति, परिवार की सुख-समृद्धि और आरोग्य की कामना के लिए 36 घंटों का कठिन निर्जला व्रत रखते हैं।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व
छठ पूजा की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं और इसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है।
- रामायण काल: एक मान्यता के अनुसार, जब भगवान श्री राम और माता सीता लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे, तो उन्होंने अपने कुलदेवता सूर्य की उपासना की। माता सीता ने मुंगेर में गंगा तट पर छठ पर्व का अनुष्ठान किया था, जिसके बाद से यह परंपरा चली आ रही है।
- महाभारत काल: एक अन्य कथा के अनुसार, महाभारत काल में जब पांडव अपना सारा राज-पाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ का व्रत रखा था। इस व्रत के प्रभाव से उन्हें अपना खोया हुआ राजपाट वापस मिला। सूर्यपुत्र कर्ण भी सूर्य देव के परम भक्त थे और वे प्रतिदिन कमर तक जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। माना जाता है कि छठ पूजा की शुरुआत उन्हीं से हुई।
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण: छठ पूजा का वैज्ञानिक महत्व भी है। यह पर्व कार्तिक और चैत्र मास में मनाया जाता है, जो ऋतु परिवर्तन का समय होता है। इस दौरान सूर्य की किरणें शरीर के लिए विशेष रूप से लाभदायक होती हैं। नदी या तालाब के जल में खड़े होकर सूर्य की पहली और आखिरी किरणों के संपर्क में आने से शरीर को विटामिन-डी मिलता है और कई चर्म रोगों से बचाव होता है। यह एक तरह की प्राकृतिक सौर-चिकित्सा (Heliotherapy) है।
चार दिवसीय कठोर अनुष्ठान: तपस्या की पराकाष्ठा
छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला एक अत्यंत अनुशासित और पवित्र पर्व है। हर दिन का अपना एक विशेष महत्व है।
पहला दिन: नहाय-खाय
कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को 'नहाय-खाय' के साथ इस महापर्व की शुरुआत होती है। इस दिन व्रती नदी, तालाब या किसी पवित्र जलाशय में स्नान करते हैं। इसके बाद वे सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसमें मुख्य रूप से कद्दू (लौकी) की सब्जी, चने की दाल और अरवा चावल (बिना उबाला हुआ चावल) शामिल होता है। इस दिन से घर में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है और तामसिक भोजन का पूरी तरह से त्याग कर दिया जाता है।
दूसरा दिन: खरना (लोहंडा)
कार्तिक शुक्ल पंचमी को 'खरना' होता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते हैं और शाम को सूर्यास्त के बाद पूजा करते हैं। प्रसाद के रूप में गुड़ की खीर (रसियाव) और रोटी बनाई जाती है। इस प्रसाद को मिट्टी के नए चूल्हे पर आम की लकड़ी से पकाया जाता है। व्रती पहले इस प्रसाद को ग्रहण करते हैं, और फिर इसे परिवार और पड़ोसियों में बांटा जाता है। इसी प्रसाद को खाने के बाद व्रती का 36 घंटे का कठिन निर्जला उपवास शुरू हो जाता है।
तीसरा दिन: संध्या अर्घ्य
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को छठ पूजा का मुख्य दिन होता है। इस दिन व्रती पूरे दिन निर्जला उपवास रखते हैं। शाम को बांस की टोकरी (दौरा) में पूजा की सामग्री, फल और ठेकुआ जैसे प्रसाद को सजाकर घाट पर ले जाया जाता है। व्रती परिवार सहित नदी या तालाब के किनारे एकत्रित होते हैं और कमर तक पानी में खड़े होकर अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह दृश्य अत्यंत मनमोहक और भक्तिमय होता है। यह एकमात्र ऐसा पर्व है जिसमें डूबते हुए सूर्य की पूजा की जाती है, जो जीवन के चक्र और सम्मान की भावना को दर्शाता है।
चौथा दिन: उषा अर्घ्य (पारण)
कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह, सूर्योदय से पहले ही सभी व्रती पुनः घाट पर पहुँचते हैं। वे उसी स्थान पर पानी में खड़े होकर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हैं। इस पूजा के बाद व्रती प्रसाद खाकर अपना व्रत खोलते हैं, जिसे 'पारण' कहा जाता है। इसके साथ ही इस चार दिवसीय महापर्व का समापन होता है।
"केलवा के पात पर उगेलन सुरुजमल, झांके झुके..."
(छठ पूजा के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीत इस पर्व की आत्मा हैं, जो माहौल को और भी भक्तिमय बना देते हैं।)
छठ पूजा का सामाजिक और सांस्कृतिक संदेश
यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह कई गहरे सामाजिक संदेश भी देता है:
- प्रकृति संरक्षण: यह पर्व सीधे तौर पर प्रकृति की पूजा है - सूर्य, जल और पृथ्वी। यह हमें सिखाता है कि प्रकृति ही जीवन का आधार है और हमें इसका सम्मान और संरक्षण करना चाहिए।
- सामाजिक समरसता: छठ घाट पर कोई अमीर-गरीब, ऊंच-नीच या जाति-पाति का भेद नहीं होता। सभी एक साथ, एक ही जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह सामाजिक समानता का सबसे बड़ा उदाहरण है।
- स्वच्छता का संदेश: छठ पूजा में पवित्रता और स्वच्छता पर अत्यधिक जोर दिया जाता है। लोग मिलकर नदी के घाटों की सफाई करते हैं, जो स्वच्छ भारत अभियान का एक जीवंत उदाहरण है।
- सादगी और समर्पण: इस पूजा में किसी पंडित या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती। व्रती स्वयं ही पूरी श्रद्धा और नियमों के साथ पूजा संपन्न करते हैं। यह भगवान और भक्त के बीच सीधे संबंध को दर्शाता है।
निष्कर्ष
छठ महापर्व लोक-आस्था का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कैसे हम बिना किसी आडंबर के, सादगी और शुद्ध मन से प्रकृति की शक्तियों की उपासना कर सकते हैं। यह व्रत की कठोरता, नियमों के पालन, और सामूहिक भागीदारी का एक अद्भुत संगम है। आज जब दुनिया ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण संकट से जूझ रही है, तब छठ जैसा प्रकृति-प्रेमी पर्व और भी प्रासंगिक हो जाता है। यह सिर्फ एक पूजा नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक शैली है जो हमें अपनी जड़ों और प्रकृति से जोड़ती है।
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