गोस्वामी तुलसीदास का जीवन परिचय (कक्षा 10 के लिए)
हिंदी साहित्य के आकाश में जब भी भक्ति की बात होती है, तो एक नाम सूरज की तरह चमकता है - गोस्वामी तुलसीदास। तुलसीदास जी सिर्फ एक कवि नहीं थे, बल्कि वे एक महान संत, दार्शनिक और समाज सुधारक भी थे। उनके द्वारा लिखा गया महाकाव्य 'श्रीरामचरितमानस' आज भी करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा और आस्था का स्रोत है। आइए, हम सब मिलकर इस महान कवि के जीवन को करीब से जानते हैं।
जन्म और बचपन की कठिनाइयाँ
गोस्वामी तुलसीदास के जन्म को लेकर विद्वानों में थोड़े मतभेद हैं, लेकिन सबसे प्रचलित मान्यता के अनुसार, उनका जन्म संवत् 1589 (सन् 1532 ई.) में उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था।
पिता का नाम: आत्माराम दुबे
माता का नाम: हुलसी
कहा जाता है कि तुलसीदास जी का बचपन बहुत ही कठिनाइयों से भरा था। लोककथाओं के अनुसार, वे 'अभुक्तमूल नक्षत्र' में पैदा हुए थे, जिसे ज्योतिष में अशुभ माना जाता है। जन्म के समय उनके मुँह में दाँत थे और उन्होंने रोने की बजाय 'राम' शब्द का उच्चारण किया था। इसी वजह से उनका बचपन का नाम 'रामबोला' पड़ गया।
अशुभ नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनके माता-पिता ने उन्हें जन्म के कुछ समय बाद ही त्याग दिया। उनकी माँ का भी निधन हो गया। इसके बाद एक दासी, चुनिया, ने उनका पालन-पोषण किया, लेकिन कुछ वर्षों बाद वह भी चल बसीं। इस तरह, बालक रामबोला बचपन में ही अनाथ हो गए और उन्हें दर-दर भटकना पड़ा।
गुरु का सान्निध्य और शिक्षा
कहा जाता है कि इसी दौरान उनकी भेंट गुरु नरहरिदास से हुई। गुरु नरहरिदास ने ही रामबोला को अपनाया, उन्हें 'तुलसीदास' नाम दिया और उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की। गुरु ने ही उन्हें पहली बार रामकथा सुनाई, जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी।
उच्च शिक्षा के लिए तुलसीदास जी काशी (वाराणसी) गए, जहाँ उन्होंने शेष सनातन जी के सान्निध्य में रहकर वेद, पुराण, उपनिषद् और अन्य शास्त्रों का गहन अध्ययन किया।
विवाह और जीवन का निर्णायक मोड़
शिक्षा पूरी करने के बाद तुलसीदास जी अपने गाँव राजापुर लौट आए। उनका विवाह रत्नावली नाम की एक बहुत ही सुंदर और विदुषी कन्या से हुआ। तुलसीदास अपनी पत्नी से बहुत अधिक प्रेम करते थे और एक पल भी उनसे दूर नहीं रह पाते थे।
एक बार रत्नावली अपने मायके चली गईं। तुलसीदास उनका वियोग सहन नहीं कर पाए और घनघोर बारिश और उफनती नदी को पार करके आधी रात में अपनी ससुराल पहुँच गए। जब रत्नावली ने उन्हें इस हालत में देखा, तो उन्हें बहुत लज्जा आई और उन्होंने तुलसीदास को फटकारते हुए कहा:
"लाज न आवत आपको, दौरे आएहु साथ।"
"धिक्-धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥"
"अस्थि चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति।"
"तैसी जो श्रीराम में, होति न तौ भव-भीति॥"
अर्थात्: "आपको लाज नहीं आती जो मेरे पीछे-पीछे दौड़े चले आए! ऐसे प्रेम को धिक्कार है। हाड़-मांस के इस शरीर से जितना प्रेम करते हो, अगर उसका आधा भी प्रभु श्रीराम से किया होता, तो तुम्हारा जीवन संवर जाता।"
पत्नी की यह कड़वी लेकिन सच्ची बात तुलसीदास के दिल में तीर की तरह चुभ गई। उन्हें आत्मग्लानि हुई और उसी क्षण उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने सांसारिक मोह-माया को त्याग दिया और प्रभु श्रीराम की खोज में निकल पड़े।
भक्ति-भावना और साहित्यिक रचनाएँ
गृह-त्याग के बाद तुलसीदास ने भारत के विभिन्न तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वे चित्रकूट, अयोध्या और काशी में लंबे समय तक रहे। उनका पूरा जीवन श्रीराम की भक्ति में समर्पित हो गया। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भगवान राम के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाया।
श्रीरामचरितमानस: यह उनका सबसे प्रसिद्ध और महान ग्रंथ है। इसे अवधी भाषा में लिखा गया है और यह हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथों में से एक है।
विनय-पत्रिका: इसमें उन्होंने भगवान के दरबार में अपनी अर्जी (विनय) प्रस्तुत की है। इसकी भाषा ब्रज है।
कवितावली और गीतावली: ये दोनों भी ब्रजभाषा में लिखी गई मुक्तक रचनाएँ हैं।
दोहावली: इसमें उनके नीति और भक्ति से जुड़े दोहे हैं।
हनुमान चालीसा: यह हनुमान जी की स्तुति में लिखी गई एक अत्यंत लोकप्रिय रचना है, जो आज हर घर में गाई जाती है।
पार्वती-मंगल और जानकी-मंगल: ये खंडकाव्य हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ
समन्वय की भावना: तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में ज्ञान और भक्ति, सगुण और निर्गुण, शैव और वैष्णव मतों के बीच समन्वय स्थापित करने का अद्भुत प्रयास किया।
लोक-मंगल की भावना: उनकी रचनाओं का मुख्य उद्देश्य समाज का कल्याण करना था। उन्होंने राम के चरित्र के माध्यम से एक आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श भाई का चित्र प्रस्तुत किया।
भाषा-शैली: तुलसीदास को अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर समान अधिकार प्राप्त था। उन्होंने दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त जैसे अनेक छंदों का बहुत सुंदर प्रयोग किया।
निधन
गोस्वामी तुलसीदास ने अपना अंतिम समय काशी में बिताया। संवत् 1680 (सन् 1623 ई.) में काशी के अस्सी घाट पर उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उनके निधन के संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है:
"संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।"
"श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर॥"
निष्कर्ष
गोस्वामी तुलसीदास हिंदी साहित्य के एक ऐसे स्तंभ हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने अपनी भक्ति और अपनी लेखनी से न केवल साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि भारतीय समाज को एक नई दिशा भी दी। उनका जीवन हमें सिखाता है कि अगर मन में सच्ची लगन हो, तो कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है। उनका लिखा 'रामचरितमानस' आज भी हमें सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है।
तुलसीदास का जीवन परिचय कक्षा 10 pdf
