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क्या किसी ने भगवान को देखा है? एक शाश्वत प्रश्न की पड़ताल
यह एक ऐसा सवाल है जो शायद इंसान के होश संभालने के साथ ही पैदा हो गया होगा। एक बच्चा अपनी माँ से पूछता है, एक दार्शनिक किताबों में इसका जवाब ढूंढता है, एक संत गुफाओं में तपस्या करके इसे जानना चाहता है, और एक वैज्ञानिक दूरबीन से ब्रह्मांड के छोर तक झाँककर इसे समझने की कोशिश करता है। "क्या किसी ने भगवान को देखा है?" यह महज़ एक सवाल नहीं, बल्कि इंसान की उस गहरी जिज्ञासा, उस खोज का प्रतीक है, जो उसे अपनी सीमाओं से परे देखने के लिए प्रेरित करती है।
इस सवाल का जवाब हाँ या ना में देना लगभग असंभव है, क्योंकि "देखने" का मतलब हर किसी के लिए अलग होता है। क्या देखने का अर्थ सिर्फ इन दो आँखों से किसी भौतिक स्वरूप को देखना है? या इसका कोई गहरा, आध्यात्मिक और अनुभवात्मक अर्थ भी है? चलिए, इस प्रश्न की परतों को धीरे-धीरे खोलने की कोशिश करते हैं।
आँखों से देखना: भौतिक रूप की तलाश
जब हम "देखना" कहते हैं, तो हमारा पहला मतलब भौतिक आँखों से होता है। क्या किसी ने भगवान को वैसे ही देखा है, जैसे हम एक पेड़, एक इंसान या एक पहाड़ को देखते हैं? दुनिया के लगभग सभी प्रमुख धर्म और आध्यात्मिक परंपराएँ इस बात पर सहमत हैं कि भगवान या उस परम शक्ति का कोई एक निश्चित, भौतिक स्वरूप नहीं है, जिसे इन सीमित आँखों से देखा जा सके।
- हिन्दू धर्म में ईश्वर को ‘निराकार’ (जिसका कोई आकार नहीं) और ‘साकार’ (जिसका आकार है) दोनों रूपों में माना गया है। निराकार ब्रह्म को अनुभव किया जा सकता है, देखा नहीं जा सकता। वहीं, साकार रूप में देवी-देवताओं की कल्पना की गई है, ताकि एक आम इंसान उनसे जुड़ सके। लेकिन क्या किसी ने भगवान कृष्ण या शिव को उनके वास्तविक, दिव्य रूप में देखा है? श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को भगवान कृष्ण ने अपना ‘विराट रूप’ दिखाया था, लेकिन वह कोई साधारण दृश्य नहीं था। उसे देखने के लिए अर्जुन को दिव्य दृष्टि की आवश्यकता पड़ी, क्योंकि साधारण आँखें उस तेज को सहन नहीं कर सकती थीं। यह घटना बताती है कि ईश्वर को देखना एक सामान्य अनुभव नहीं, बल्कि एक दिव्य कृपा है।
- इस्लाम और यहूदी धर्म में ईश्वर की कल्पना पूरी तरह से निराकार है। उनका कोई रूप, कोई छवि या मूर्ति नहीं हो सकती। ईश्वर को देखना तो दूर, उसकी कल्पना करना भी मना है। पैगंबर मूसा ने ईश्वर से खुद को दिखाने का अनुरोध किया था, लेकिन उन्हें केवल एक झलक का अनुभव हुआ, जिसे वे सहन नहीं कर पाए।
- ईसाई धर्म में कहा गया है, "किसी ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा।" हालांकि, वे यीशु को परमेश्वर का पुत्र और मानवीय रूप मानते हैं। उनके अनुयायियों के लिए, यीशु को देखना ही परमेश्वर की झलक पाने जैसा था।
इन सभी उदाहरणों से एक बात साफ़ है: अगर हम भगवान को एक भौतिक वस्तु की तरह देखने की उम्मीद कर रहे हैं, तो शायद हमें निराशा ही हाथ लगेगी। वह अनंत शक्ति हमारी सीमित दृष्टि की पकड़ से परे है।
आँखों से परे देखना: अनुभव और अनुभूति
तो क्या इसका मतलब है कि जवाब ‘नहीं’ है? शायद नहीं। शायद हम गलत जगह और गलत तरीके से देख रहे हैं। ‘देखना’ सिर्फ आँखों का काम नहीं है; ‘देखना’ मन, हृदय और आत्मा का भी काम है। जब लोग कहते हैं कि उन्होंने भगवान को "देखा" है, तो उनका मतलब अक्सर एक गहरी अनुभूति या साक्षात्कार से होता है।
1. प्रकृति में ईश्वर को देखना:
कई लोगों के लिए, ईश्वर को देखने का सबसे सरल तरीका प्रकृति को देखना है। जब आप हज़ारों तारों से भरी रात में आकाश को देखते हैं, हिमालय की विशाल चोटियों के सामने खड़े होते हैं, या समुद्र की अनंत लहरों को किनारे से टकराते हुए महसूस करते हैं, तो एक अजीब सा अहसास होता है। अपनी ক্ষুদ্রता और उस विशाल रचना के सामने नतमस्तक होने का भाव। उस पल में, कई नास्तिक भी एक अनाम शक्ति के अस्तित्व को महसूस करने लगते हैं। एक फूल का खिलना, एक तितली के पंखों पर बने जटिल डिज़ाइन, या बारिश के बाद मिट्टी की सोंधी महक - यह सब उस महान कलाकार की कलाकृति नहीं तो और क्या है? इसे ही तो ‘ईश्वर को देखना’ कहते हैं।
2. इंसानियत और प्रेम में ईश्वर को देखना:
संतों और विचारकों ने हमेशा कहा है कि ईश्वर कण-कण में है, खासकर इंसानों में। जब एक माँ अपने बच्चे के लिए रातों की नींद कुर्बान करती है, जब कोई अजनबी बिना किसी स्वार्थ के किसी ज़रूरतमंद की मदद करता है, जब कोई सैनिक देश के लिए अपनी जान दे देता है - उस निस्वार्थ प्रेम, करुणा और बलिदान में ईश्वर की सबसे स्पष्ट झलक दिखती है। मदर टेरेसा गरीबों और बीमारों की सेवा में ईश्वर को देखती थीं। शायद यही असली ‘दर्शन’ है। जब हम दूसरों के दुख को महसूस करते हैं और उसे दूर करने की कोशिश करते हैं, तो हम ईश्वर के सबसे करीब होते हैं।
3. आंतरिक अनुभूति और ध्यान में देखना:
मीराबाई, कबीर, रूमी, रामकृष्ण परमहंस जैसे अनगिनत संतों और रहस्यवादियों ने ईश्वर को ‘देखने’ या अनुभव करने का दावा किया है। उनका देखना इन बाहरी आँखों से नहीं था, बल्कि ध्यान और भक्ति की गहरी अवस्था में अपने भीतर उस परम चेतना का साक्षात्कार करना था। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी पहचान भूलकर उस अनंत में विलीन हो जाता है। यह आनंद, शांति और पूर्णता का एक ऐसा अनुभव है, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इसे ही ‘आत्म-साक्षात्कार’ या ‘ईश्वर-दर्शन’ कहा गया है। यह देखना नहीं, बल्कि ‘हो जाना’ है।
विश्वास और संदेह का द्वंद्व
एक तर्कवादी या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, इन सभी अनुभवों को मस्तिष्क की रासायनिक क्रियाओं, मनोवैज्ञानिक प्रभावों या केवल इंसान की कल्पना का परिणाम बताया जा सकता है। और यह दृष्टिकोण भी अपनी जगह गलत नहीं है। जिसे एक भक्त ‘चमत्कार’ कहता है, उसे विज्ञान ‘संयोग’ कह सकता है। जिसे एक संत ‘ईश्वरीय अनुभूति’ कहता है, उसे एक न्यूरोसाइंटिस्ट मस्तिष्क में डोपामाइन का स्त्राव कह सकता है।
यहाँ आकर आस्था (Faith) की भूमिका शुरू होती है। आस्था का अर्थ ही है, बिना देखे विश्वास करना। यह एक व्यक्तिगत चुनाव है। सूरज का उगना एक भक्त के लिए ईश्वर का रोज़ दिया जाने वाला आशीर्वाद है, और एक वैज्ञानिक के लिए पृथ्वी के घूमने का परिणाम। घटना एक ही है, पर उसे देखने का नज़रिया अलग-अलग है।
निष्कर्ष
तो, क्या किसी ने भगवान को देखा है?
अगर आप किसी व्यक्ति या वस्तु की तरह देखने की बात कर रहे हैं, तो इसका उत्तर शायद ‘नहीं’ है।
लेकिन अगर देखने का अर्थ महसूस करना है, अनुभव करना है, और जुड़ना है, तो इसका उत्तर ‘हाँ’ है। लाखों-करोड़ों लोगों ने उसे देखा है। उन्होंने उसे उगते सूरज की पहली किरण में देखा है, एक नवजात शिशु की मुस्कान में देखा है, निस्वार्थ सेवा में देखा है, और ध्यान की गहरी शांति में अनुभव किया है।
शायद असली सवाल यह नहीं है कि "क्या किसी ने भगवान को देखा है?" बल्कि असली सवाल यह है कि "क्या हम उसे देखने के लिए तैयार हैं?" क्या हमने अपनी आँखों और दिल पर चढ़ी भौतिकता की धूल को साफ़ किया है? क्योंकि कहते हैं, वह तो हर जगह, हर पल मौजूद है, बस उसे देखने के लिए आँखों की नहीं, एक पवित्र और प्रेमपूर्ण हृदय की ज़रूरत होती है। शायद भगवान को देखा नहीं जाता, उसे जिया जाता है।