भागवत गीता के 700 श्लोक अर्थ सहित page 1 गीता ज्ञान

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भागवत गीता


भागवत गीता के 700 श्लोक जानने के लिए हमारे साथ बन रही है मित्रों नमस्कार हमारे वेबसाइट में आपका स्वागत है यदि आप भागवत गीता के 700 श्लोक पढ़ना चाहते हैं तो आशा है हमारे यह पोस्ट आपके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होने वाले हैं । सबसे पहले आपको बताना चाहते हैं कि  भागवत गीता के 700 श्लोक मैसेज कुछ श्लोक जो आपको बताने वाले हैं क्योंकि 700 श्लोक एक पेज में आपको नहीं बता सकते हैं क्योंकि बहुत लंबी हो जाएगी जिससे आपको भी पढ़ने में असुविधा होंगे और हमें भी । आपको असुविधा ना हो इसलिए हमारी टीम एक एक पेज क्रिएट करके विस्तार से भागवत गीता के 700 श्लोक बताने जा रहे हैं हमें उम्मीद है हमारे साथ बने रहेंगे । जगत कल्याण के लिए भगवान श्री कृष्ण की अमृतवाणी सुनना या सुनाना दोनों का ही परिणाम एक पाया जाता है जिसके कारण लोग भागवत गीता के हर एक श्लोक में महत्व देते हैं तो चलिए शुरू करते हैं भागवत गीता के 700 श्लोक में से पहला भाग - भागवत गीता के 700 श्लोक संस्कृत भाषा से लिया गया है ।


कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में सैना निरीक्षण 


श्लोक नंबर 1 - 


धृतराष्ट्र ने कहा -  हे संजय ! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुई है मेरे तथा पांडव के पुत्र ने क्या किया ?


तात्पर्य : भागवत गीता एक बहूपठित तो आस्तिक विज्ञान है जो गीता महात्मय में एवं सार रूप में दिया हुआ है । इसमें यह उल्लेख है कि मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीकृष्ण के भक्तों की सहायता से संवीक्षण करते हुए भागवत गीता का अध्ययन करें और बिना स्वार्थ से उन्हें समझाने की प्रयास करें ।और अर्जुन ने जिस प्रकार से साक्षात भगवान श्री कृष्ण से गीता सुनी और उसका उपदेश ग्रहण किया इस प्रकार की स्पष्ट अनुभूति का उदाहरण भागवत गीता में ही है ।यदि उसी गुरु परंपरा से निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए बिना किसी को भागवत गीता समझाने का सौभाग्य प्राप्त हो तो वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है । पाठक को भागवत गीता में ना केवल दूसरे शास्त्रों की सारी बातें मिलेगी अपितु ऐसी बातें भी मिलेगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है यही गीता का विशिष्ट मानदंड है । स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात उच्चरित होने के कारण यह पूर्ण आस्तिक विज्ञान है ।


महाभारत में धृतराष्ट्र तथा संजय की बताएं इस महान दर्शन के मूल सिद्धांत का कार्य करती है । माना जाता है कि इस दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में हुआ जो वैदिक युग से पवित्र तीर्थ स्थल रहा है इसका प्रवचन भगवान द्वारा मानव जाति के पथ दर्शन हेतु तब तक किया गया जब वे इस लोक में स्वयं उपस्थित थे ।


धर्म क्षेत्र शब्द सार्थक है, क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के पक्ष में ही भगवान स्वयं उपस्थित थे । कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्र की बिजाई की संभावना के विषय में अत्याधिक विश्वास था इसी विश्वास के कारण उसने अपने सचिव से पूछा उन्होंने क्या किया । वह अस्वस्थ था कि उसके पुत्रों तथा उसके छोटे भाई पांडु के पुत्रों कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में निर्णायक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं फिर भी उसकी जिज्ञासा सार्थक है । वह नहीं चाहता था कि भाइयों में कोई समझौता हो,  वह युद्ध भूमि में अपने पुत्र की नियति के विषय में आश्वस्त होना चाह रहा था । क्योंकि इस युद्ध को कुरुक्षेत्र में लड़ा जाना था, जिसका उल्लेख वैदों में स्वर्ग के निवासियों के लिए भी तीर्थ स्थल के रूप में हुआ है । धृतराष्ट्र अत्यंत भयभीत था कि वह पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर ना जाने कैसे प्रभाव पड़ेंगे ऐसे भली-भांति ज्ञात था कि उसका प्रभाव अर्जुन तथा पांडु के दूसरे पुत्रों पर अत्यंत अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से सभी पुण्य आत्मा थे । संजय श्री व्यास का शिष्य था उनकी कृपा से संजय धृतराष्ट्र के कक्ष में बैठे-बैठे कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल का दर्शन कर सकता था इसलिए धृतराष्ट्र ने उससे युद्ध स्थल की स्थिति के विषय में पूछा ।


पांडव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र दोनों ही एक वंश से संबंधित है किंतु यहां पर हित राष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं उसने जानबूझकर अपने पुत्र को कुरु कहा और पांडु के पुत्रों को व उसके उत्तर देकर से रिलीव कर दिया इस तरह पांडु के पुत्रों अर्थात अपने भतीजे के साथ देश राष्ट्र की विशिष्ट मन स्थिति समझी जा सकती है जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पौधे को उखाड़ दिया जाता है उसी प्रकार इस कथा के आरंभ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहां धर्म के पिता श्री कृष्ण उपस्थित हो वहां कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि गीत राष्ट्र के पुत्रों की आवाज चित पौधों को समूल नष्ट करके युधिष्ठिर आदि नितांत धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जाएगी यहां धर्म क्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र शब्दों की उनकी ऐतिहासिक तथा वैदिक महत्ता के अतिरिक्त यही सार्थकता है ।


संजय ने कहा - हे राजन पांडू पुत्र द्वारा सेना की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने यह शब्द कहे । 


तात्पर्य : धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था । दुर्भाग्यवश अध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था वह यह भी जानता था कि उसी के सामान उसके पुत्रों भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वे पांडवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पाएंगे क्योंकि पांचो पांडव जन्म से ही पवित्र थे । फिर भी उसे तीर्थ स्थान के प्रभाव के विषय में संदेह था । इसलिए संजय युद्ध भूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के विचार समझ गया । अत: वह निराश राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था उसने उसे विश्वास दिलाया कि उसके पुत्रों पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे हैं उसने राजा को बताया कि उसका पुत्र दुर्योधन पांडवों की सेना को देखकर तुरंत अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया । यद्यपि दुर्योधन को राजा कह कर संबोधित किया गया है तो भी स्थिति की गंभीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा । दुर्योधन राजनीति बनाने के लिए सर्वथा उपयुक्त था किंतु उसने पांडवों की वयुहरचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छिपाना पाया । 

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