महाभारत के नाम सुनते ही हमारे मन में भक्ति जन्म ले लेते है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत इसलिए रचाया था ताकि इस महाभारत को देखकर इंसान सही मार्ग चुन सकें प्रिय मित्रों चलिए जानते हैं दानवीर कर्ण का इतिहास क्या है जो हमारे लिए जानना बहुत ही आवश्यक है ।
पाप और पुण्य की बात करें तो महाभारत देखने के बाद कैसे पाप होता है और कैसे पुण्य होता है हर इंसान को सेही मार्गदर्शन हो जाता है । क्या करने से हमें पाप होता है और क्या नहीं करने से हमें पूर्ण मिलती हैं यह महाभारत में ही जानकारी प्राप्त हो जाता है ।
महाभारत में सूर्यपुत्र कर्ण महाशक्तिशाली था जिन्होंने माता करीब होते हुए भी मां पुकार नहीं सके कितना दुख सहे होंगे शायद आप समझ सकते हैं । हां मित्रों दुख सहने वाले कर्ण की बात कर रहा हूं तो आइए जानते हैं उनके जीवन में मां होते हुए भी अपनी मां की संतान की परिचय प्राप्त क्यों नहीं हो पाया ।
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कर्ण का जीवन अंतत विचार जनक है। कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों में से एक थे जिसके कारण भगवान परशुराम ने स्वयं कर्ण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था । कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थी परन्तु उनका पालन पोषण करने वाली माँ का नाम राधे था। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सुर्य थे। कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था।
कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। इसी से जुड़ा एक वाक्या महाभारत में है जब अर्जुन के पिता भगवान इन्द्र ने कर्ण से उसके कुंडल और दिव्य कवच मांगे और कर्ण ने दे दिये।कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उनके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने अपने ही पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया जिसका नाम था दानवीर कर्ण।
दानवीर कर्ण का किस्मत ऐसा था कि एक शूद्र को घर में पालन-पोषण हुआ था जिससे वहीं पर अपना जीवन व्यतीत । बचपन में ही दुर्योधन का साथ मित्रता बने उस समय दानवीर कर्ण का ज्ञात नहीं था कि कुंती उनका माता है । दानवीर कर्ण धीरे-धीरे बड़े होते गया और अपने जोधा कौशल लोगों के सामने प्रभावित करने लगे ।
महाभारत में कर्ण एक ऐसा महाशक्तिशाली था जहां उन को पराजित करने में पांडवों के वश में नहीं था । कर्ण एक ऐसा रास्ता चुन लिया कि धर्म के खिलाफ था और इसी कारण उन्हें भगवान इंद्र देव कर्ण से अपना कवच दान में मांग लिया था ताकि उसे पराजित कर सके . जिस कवच के कारण कर्ण अमर था कोई भी बाण सिने पे भेद नहीं सकता । कर्ण का एक ही दोष था कि वह अधर्म का साथ दिया और इसी के कारण उन्हें पराजित होना पड़ा । यदि भगवान कृष्ण के बात सुन लिया होता तो आज उनके नाम सर्वप्रथम लिया जाता था ,मगर उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया आपने ही अधर्म का साथ देकर कर्म निभाया । मतलब दुर्योधन का साथ मित्रता निभाया दुर्योधन ने सभी काम अधर्म किया है जिसके कारण कर्ण का अंत हुए ।
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