कबीर दास के 15 दोहे : इस अमृतवाणी से आपका भाग्य बदल देगा

bholanath biswas
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कबीरदास के15 दोहे


कबीरदास के इस 15 दोहे में आपको मिलेंगे सबसे अच्छा ज्ञान ।

मनुष्य के भीतर जब तक पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक उनके जीवन में कुछ ना कुछ कमी रह जाते हैं । दोस्तों आज हम आपको कबीरदास के इस 15 दोहे में बताने वाले हैं कैसे आप अपनी जिंदगी को सफल बना सकते हैं और कितने ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । जगत के कल्याण के लिए भगवान श्री कृष्णा ने अर्जुन को अपनी ज्ञान प्रदान किया था ठीक उसी प्रकार संत कबीर दास ने भी अपनी ज्ञान जगत को प्रदान किया जिससे मनुष्य का हमेशा कल्याण हो । प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सुख और दुख आते हैं पर जो लोग सुख में अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं उनके जीवन में आने वाले समय में भयंकर कष्ट उठाना पड़ता है । इसलिए अपने कर्तव्य को हमेशा पालन करनी चाहिए चाहे वह दुख में रहे या सुख में रहें । अधिकांश लोग अपने कर्तव्य को नहीं जानते हैं क्योंकि उनके भीतर ऐसे प्रभावशाली कोई ज्ञान नहीं है जिसके कारण अपने कर्तव्य को पालन नहीं कर सकते हैं । समाज को देखकर कुछ कर्तव्य  हम पालन कर सकते हैं । मगर जिसके अंदर आध्यात्मिक ज्ञान होते हैं उससे अपने कर्तव्य को अच्छे से पालन कर सकते हैं अगर आपके अंदर आध्यात्मिक ज्ञान है तो आपके जीवन में बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं ।



अगर व्यक्ति दूसरे की सुख से खुद को कष्ट देते हैं तो उनके लिए पापों का घड़ा धीरे धीरे-धीरे भरते जाते हैं क्योंकि दूसरे के सुख से जलने वाले लोग खुद हमेशा बेचैन रहते हैं कभी भी उनके मन शांति नहीं रहते हैं । खुद को बुद्धिमान समझने वाले व्यक्ति दूसरे को छोटे करते हैं और फिर खुद को बड़ा होने की प्रयत्न करते हैं । बुद्धिमान व्यक्ति वह होते हैं जोअपनी गलती को समझ सके और दूसरे को सम्मान करते हैं । बुद्धिमान व्यक्ति वह होते हैं जहां कभी भी ऊंची आवाजों से बात नहीं करते हैं सभी के साथ मीठी बोल बचन करते हैं । मनुष्य चाहे कितने भी कुछ भी सीख ले मगर आध्यात्मिक ज्ञान या फिर प्रभावशाली ज्ञान मरने तक सीखने को मिल जाता है । मनुष्य के लिए पुण्य क्या है और पाप क्या है इसे समझने के लिए आपके भीतर धार्मिक ज्ञान होना बहुत ही जरूरी है ।


दोस्तों आज जो भी आपके लिए कबीर दास के दोहे लेकर आए हैं हमें आशा है कि आप को इस 15 दोहे में प्रभावशाली ज्ञान प्राप्त होंगे । तो चलिए जानते हैं क्या है 15 दोहे जहां आपको बहुत ही अच्छा ज्ञान मिलेंगे ।


 1- कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।

जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।


भावार्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।


2- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।


भावार्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, भावार्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।


3- साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।


भावार्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।


4- तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।


भावार्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !


5- धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

 माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।


भावार्थ: मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !


6- माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


भावार्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो।


7- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

भावार्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।


8- दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।


भावार्थ: यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।


9- जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

भावार्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।


10- बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,

हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।


भावार्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।



                   11- मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।

भावार्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।

12- जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ।

भावार्थ: जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे।

13- मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि।

भावार्थ: मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता ।

14- यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।

भावार्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था।जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया। कुछ भी हाथ नहीं आया।

15- मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि।

भावार्थ: अहंकार बहुत बुरी वस्तु है। हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ। मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ?

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