अपराजिता स्तोत्र :
मां अपराजिता स्तोत्र कोई साधारण स्तोत्र नहीं है आज तक जितने भी भक्त अपने घर में मां अपराजिता का स्रोत का पाठ किए हैं उनका मनोकामना सफल हुए हैं । दोस्तों क्या आपके घर में ऐसी कोई परेशानियां है जो लंबे दोनों से व्यक्ति कई बीमारी से जूझ रहे हैं । अगर आपके परिवार में कोई सदस्य बीमारियों से जूझ रहे हैं तो ऐसी बीमारियों को दूर करने में मां अपराजिता का कृपा प्राप्त करना चाहिए । दोस्तों बहुत ऐसे परिवार है जहां दरिद्रता से जूझ रहे होते हैं काम करने में भी सफलता प्राप्त नहीं होते हैं पर्याप्त धन प्राप्त नहीं कर पाते हैं ऐसे में मां अपराजिता का कृपा प्राप्त करना चाहिए । मां अपराजिता का कृपा प्राप्त अगर किसी भी भक्त के ऊपर हो गया तो उनके जीवन में कई सारे परेशानियां दूर हो जाएंगे । मां अपराजिता स्तोत्र पाठ करने से एक तो घर के चारों ओर शुद्धता बना रहेंगे और परिवार के अंदर हमेशा कल्याण होगा । घर में दरिद्रता से जूझ रहे हैं तो वह भी दूर होगा तो दोस्तों इसे कहते हैं चमत्कारी लाभ मां काअगर आपभक्त हैं तो निस्वार्थ के साथ प्रतिदिन शाम के समय मां अपराजिता स्तोत्र का पाठ अवश्य करें इससे आपका और भीलाभ मिलेंगे जैसे कि अगर आपके परिवार मेंकोई भी गुप्त शत्रु होता तो उन्हें भी आपके सामने नतमस्तक होना होगा क्योंकि मां का कृपा कभी व्यर्थ नहीं जातामां का कृपा अगर वक्त के ऊपर हो गया तो उनके जीवन में कोई भी ऐसे शत्रु नहीं होंगे । दोस्तों आप किसी भी धर्म के हो इससे कोई मतलब नहीं है लेकिन आपके जो मन में भक्ति है वही सब कुछ है अगर आपके मन में मां अपराजिता के प्रति श्रद्धा है तो आप पर कृपा हमेशा करते रहेंगे ।
दोस्तों आगे बात करते हैं मां अपराजिता स्तोत्र पाठ पढ़ाने का नियम क्या है ? धर्म शास्त्र के अनुसार मां अपराजिता का फोटो हो या मूर्ति दक्षिण दिशा में मुंह होना चाहिए । उसके बाद प्रतिदिन सुबह स्नान करके मां के मूर्ति के सामने अगरबत्ती लगाए, एक प्रदीप जलाएं उसके बाद इस स्तोत्र का पाठ करना शुरू करें । प्रसाद के रूप में समर्थ के अनुसार प्रतिदिन फल दे सकते हैं, गुड, बताशा दे सकते हैं, लड्डू दे सकते हैं तो आपके समर्थ के अनुसार प्रसाद चढ़ा सकते हैं ।
सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग करे:
विनियोग: ॐ अस्या: वैष्ण्व्या: पराया: अजिताया: महाविद्ध्या: वामदेव-ब्रहस्पतमार्कणडेया ॠषयः। गाय्त्रुश्धिगानुश्ठुब्ब्रेहती छंदासी। लक्ष्मी नृसिंहो देवता। ॐ क्लीं श्रीं हृीं बीजं हुं शक्तिः सकल्कामना सिद्ध्यर्थ अपराजित विद्द्य्मंत्र पाठे विनियोग:। जल भूमि पर छोड़ दें।
अपराजिता देवी ध्यान:
ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजंगाभरणानिव्ताम।
शुद्ध्स्फटीकंसकाशां चन्द्र्कोटिनिभाननां॥
शड़्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजिताम।
बालेंदुशेख्रां देवीं वर्दाभाय्दायिनीं।
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा:॥
मार्कंडेय उवाच:
शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्व्कामार्थ्सिद्धिदाम।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजिताम्॥
विष्णोरियमानुपप्रोकता सर्वकामफलप्रदा।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभितिविनाशनी।
सवैश्र्च पठितां सिद्धैविष्णो: परम्वाल्लभा ॥
नानया सदृशं किन्चिदुष्टानां नाशनं परं ।
विद्द्या रहस्या, कथिता वैष्ण्व्येशापराजिता ।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्शात्स्त्वगुणाश्रया ॥
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
अथात: संप्रवक्ष्यामी हृाभ्यामपराजितम् ।
यथाशक्तिमार्मकी वत्स रजोगुणमयी मता ॥
सर्वसत्वमयी साक्शात्सर्वमन्त्रमयी च या ।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ॥
सर्वकामदुधा वत्स शृणुश्वैतां ब्रवीमिते ।
यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ॥
भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत् ।
धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते ॥
गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय:।
भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः ॥
एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।
रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत् ॥
शस्त्रं वारयते हृोषा समरे काडंदारूणे ।
गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम्॥
इत्येषा कथिता विद्द्या अभयाख्या अपराजिता।
एतस्या: स्म्रितिमात्रेंण भयं क्वापि न जायते ॥
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा:।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव: ।
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा: ॥
अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात् ।
कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ॥
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।
न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ॥
पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।
हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृाभय: पुमान् ॥
ह्रदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां ।
रक्त्माल्याम्बरधरां पद्दरागसम्प्रभां ॥
पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां ।
साध्केभ्य: प्र्यछ्न्तीं मंत्रवर्णामृतान्यापि ॥
नात: परतरं किन्च्चिद्वाशिकरणमनुतम्ं ।
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ॥
प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि ।
तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां ॥
ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां ।
सर्व्दुष्टप्रश्मनी सर्वशत्रुक्षयड़्करीं ॥
दारिद्र्य्दुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं ।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां ॥
डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं ।
महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं ॥
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते: ।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु ॥
एकाहिृकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थ्मासिकं ॥
पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं।
श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं ॥
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं ।
द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा ॥
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु, स्वाहेत्योंम ॥
अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता ।
स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा ॥
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित ।
नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते ॥
तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता ।
कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित: ॥
मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत ।
नीलजीतमूतसंड़्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ॥
उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।
शक्तिं त्रिशूलं शड़्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं ।
व्याघ्र्चार्म्परिधानां किड़्किणीजालमंडितं ॥
धावंतीं गगंस्यांत: पादुकाहितपादकां ।
दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां ॥
व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां ।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पान्पात्रत: ॥
सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात् ।
त्रिशुलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु: ॥
पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके ।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां ॥
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके ।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी ॥
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति, अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं। श्रीमद्पाराजिताविद्दां ध्यायते ॥
दु:स्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च ।
व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये ॥
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं ।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां ॥
तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी।
यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम: ॥
य इमां पराजितां परम्वैष्ण्वीं प्रतिहतां
पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्द्यां ॥
जपति पठति श्रृणोति स्मरति धारयति किर्तयती वा
न तस्याग्निवायुवज्रोपलाश्निवर्शभयं ॥
न समुद्रभयं न ग्रह्भयं न चौरभयं
न शत्रुभयं न शापभयं वा भवेत् ॥
क्वाचिद्रत्र्यधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषी
विषगरगरदवशीकरण विद्वेशोच्चाटनवध बंधंभयं वा न भवेत् ॥
।। इति अपराजिता स्तोत्रम् ।।