श्राद्ध का अर्थ, जानें इंसान मरने के बाद श्राद्ध क्यों किया जाता है

bholanath biswas
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 श्रद्धया इदं श्राद्धम् ‌ 👉 जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है , भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। दोस्तों नमस्कार हमारे वेबसाइट में आपका स्वागत है चलिए जानते हैं विस्तार से लोग श्राद्ध क्यों करते हैं और इससे हमें क्या फल मिल सकता है 


हिन्दू धर्म में 👉माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ा पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए 👉 पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को 👉पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।


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आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।


पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।


पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।


भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।


पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।

Mantra 

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।


श्राद्ध करने से इंसान की मरने के बाद जो पाप रह जाता है उनके लिए कुछ कम हो जाते हैं और उनकी आत्मा पूर्ण शांति मिलती है । उन्हें पुनर्जन्म के लिए ईश्वर की कृपा मिलती हैं इसलिए लोग इंसान मरने के बाद श्राद्ध किया करते हैं . जैसे आप दूसरे के लिए कर रहे हैं ठीक उसी तरह आप जब मरेंगे तो आपके बाल बच्चे भी ठीक इसी प्रकार करेंगे तो आपका आत्मा शांति पाएंगे ऐसे परंपरा करते रहने से सभी केलिए अच्छा हैं ।


दोस्तों श्राद्ध का अर्थ क्या है जानें ।


पितरों की प्रसन्नता हेतु श्रद्धा से किया जानेवाला कार्य को श्राद्ध कहा जाता है  । इसलिए श्राद्ध करते समय मन में हमेशा अपने पूर्वजों की आत्मा के लिए भक्ति और श्रद्धा होना चाहिए अगर किसी भी प्रकार का उन्हें सद्गति प्राप्त नहीं हुई है तो आपके द्वारा उन्हें मुक्ति मिल सकती हैं । आपका भक्ति और श्रद्धा से उनका कई सारे पाप दूर हो सकता है ।

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