पहले युग में बहुत मेहनत और लगन से मंदिर निर्माण किया गया, और मंदिर बनाने के लिए बड़े-बड़े बेजुवान पशुओं से काम लिया करते थे |
तो चलिए मैं आपको दुनिया के एक ऐसा मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं आप भी चौंक जाएंगे क्या ऐसे भी इस मंदिर में रहस्यमई छुपा हुआ है ।
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टिगोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक
स्थानों पर पत्थर और र्इंट चुन सुरकी से मन्दिर बनने लगे। 7वीं शताब्दि तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है।
चौथी से छठी शताब्दी में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ। मूल रूप से हिन्दू मन्दिरों की शैली बौद्ध मन्दिरों से ली गयी होगी जैसा कि उस समय के पुराने मन्दिरो में मूर्तियों को मन्दिर के मध्य में रखा होना पाया गया है और जिनमें बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था।
गुप्तकालीन बचे हुए लगभग सभी मन्दिर अपेक्षाकृत छोटे हैं जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ एक छोटा केन्द्रीय कक्ष है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चारों ओर देखने से लोग देखते ही रह जाते हैं।
बौद्ध और जैन पंथियों द्वारा धार्मिक उद्देश्यों के निमित्त कृत्रिम गुफाओं का प्रयोग किया जाता था ,और हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा भी इसे आत्मसात कर लिया गया था।
फिर भी हिन्दुओ द्वारा गुफाओं में निर्मित मंदिर तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं और गुप्तकाल से पूर्व का तो कोई भी साक्ष्य इस संबन्ध में नहीं पाया जाता है।
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गुफा मन्दिरों और शिलाओं को काटकर बनाये गये थे मन्दिरों के संबंध में अधिकतम जानकारी जुटाने का प्रयास करते हुए हम जितने स्थानों का पता लगा सके वो पृथक सूची में सलंग्न की है।
मद्रास (वर्तमान 'चेन्नई') के दक्षिण में पल्लवों के स्थान महाबलिपुरम् में, 7वीं शताब्दी में निर्मित अनेक छोटे मन्दिर हैं जो चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं । और जो तमिल क्षेत्र में तत्कालीन धार्मिक भवनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मन्दिरों का अस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश के समय से देखने को मिलती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मंदिरों का महत्त्व और उनके
आकार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत में हिन्दू मंदिरों की उत्कृष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेश के खजुराहो में देखने को मिलती है। उड़ीसा के भुवनेश्वर में सिथत लगभग 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हालांकि, 13वीं शताब्दी में निर्मित कोणार्क का सूर्य मंदिर इस क्षेत्र का सबसे बड़ा और विश्वविख्यात मंदिर है। इसका शिखर इसके आरंम्भिक दिनों में ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही शेष बचा है।
काल और वास्तु के दृष्टिकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्दिर 11वीं शताब्दी में बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान में भी वास्तु के स्वतन्त्र शैली वाले अच्छे मन्दिरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं। प्रथम दशाब्दी के अन्त में वास्तु की दक्षिण भारतीय शैली तंजौर (प्राचीन नाम तंजावुर) के राजराजेश्वर मंदिर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी ।
उड़ीसा के भुवनेश्वर शहर में स्थापित है लिंगराज मंदिर । और इस मंदिर का रहस्य यह है कि भगवान शिव अपने रूप बदल कर यहीं से पैदल पुरी जगन्नाथ मंदिर के दर्शन करने गया था । भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद फिर से इसी स्थान पर आकर भगवान शिव अदृश्य हो गया था👉 मनोकामना पूर्ति हेतु हनुमान जी के जबरदस्त उपाय जानिए